सतयुग से कलियुग तक
16,16 सममात्रिक
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सतयुग का सूरज अस्त हुआ,
तब धर्म-प्रकाश घटा जग में।
त्रेता-द्वापर में साँझ ढली,
कलियुग है आन पड़ा मग में।
अब धर्म-ध्वजा है ध्वस्त हुई,
नित सघन हुई है स्वार्थ-निशा।
हिंसा का रौरव दहक रहा,
नित-नित बढती है विषय-तृषा।
भूल चुका जग स्वप्न मानकर,
हरिश्चंद्र की त्याग- कहानी।
टले नहीं थें जो सत्पथ से,
वसुधा के अतिप्रसिद्ध दानी।
यह जग भूल चुका राघव की,
शुभ प्रण-पालन की तत्परता।
निष्काम कर्ममय जीवन के,
गीतोपदेश की पावनता।
मुरझ चले हैं जग-उपवन में,
सदाचार के पुष्प मनोहर।
मिटी जा रही विश्व-हृदय से,
नरता की नर-सुलभ- धरोहर।
मुक्त हृदय से शुचि अभिनंदन,
नहीं किसी का अब होता है।
धारण कर संदेह गरल को,
विषधर कटुता का सोता है।
हर्षित कभी न होता है जग,
उपवन के निर्गंध कुसुम से।
स्नेह प्राप्त करना दुर्लभ है,
द्वेष-व्याधि से जीर्ण हृदय से।
भावभूमि जिसकी बंजर है,
जिसमें करुणा है सुप्त पड़ी,
जिसका है पत्थर बना हृदय,
वह कर सकता क्या प्रीति बड़ी?
जग में हैं ऐसे दयाहीन,
जिनसे मानवता डरती है।
जिनके बहु क्रूर कुकर्मों से,
कंपित होती यह धरती है।
जो बंधन स्वयं बनाते हैं,
वे ही हैं बंधनहीन यहाँ।
जो हैं जग के कर्तव्यवाह,
वे नित विलास में लीन यहाँ।
मैं खोज रहा जग-कानन में,
कुसुम नेह के कहाँ खिले हैं।
कहाँ प्रेम का सुखद सरोवर,
कहाँ त्याग-निर्झर निकले हैं।
वह सुराज्य कैसा होता है?
मानवता जिसमें हँसती है।
भ्रातृप्रेम में उमग भुजाएँ,
आलिंगन सबका करती हैं।
जहाँ स्नेहमधु-सिंचित वाणी,
सबके मन को हरषाती है।
जहाँ प्रीति-वाटिका निराली,
हिय को सुरभित कर जाती है।
जहाँ शान्ति की अविरल धारा,
सबको छू-छूकर बहती है।
सद्भावों से हरित हृदय है,
सुख की कलियाँ नित खिलती हैं।
खोज रहा मैं जग के भीतर,
मधुमय वसंत का मृदु उपवन।
पुष्प खिले हैं जहाँ शान्ति के,
जहाँ सरस हो जाता जीवन।
पा सकते कुछ दुर्लभ मोती,
प्रेम-सिन्धु यदि लहराएगा,
कलियुग में सतयुग की छाया,
निश्चित ही जग पा जाएगा।
रचनाकार-- निशेश अशोक वर्द्धन
पता-- ग्राम--देवकुली
डाकघर--देवकुली
थाना--ब्रह्मपुर
जिला--बक्सर(बिहार)
पिन कोड--८०२११२
दूरभाष संख्या--8084440519
शिक्षा--इंटरमीडिएट(विज्ञान,गणि त)ए०एन० काँलेज,पटना
जन्मतिथि--23•03•1989